अन्तःतीर्थ | आन्तरिक तीर्थ

     बाह्य तीर्थों से तो हम सब परिचित है ही‚ जिनमें स्नान या सेवन से तन-मन की तात्कालिक शुद्धि होती है। परंतु आज ऐसे आंतरिक तीर्थों के बारे में जानेंगे जिनके सेवन के बिना बाह्य तीर्थ महत्त्वहीन हो जाते है। इन आंतरिक तीर्थों का माहात्म्य ऐसा है कि केवल इन्हीं का सेवन कर लिया जाये तो बाह्य तीर्थसेवन की आवश्यकता ही नही रह जाती। ये अंतःतीर्थ पद्मपुराण में वर्णित है— 

सत्यं तीर्थं क्षमा तीर्थं तीर्थमिन्द्रियनिग्रहः। 
सर्वभूतदयातीर्थं तीर्थमार्जवमेव च।।

सत्य तीर्थ है‚ क्षमा तीर्थ है‚ इन्द्रियों का निग्रह करना तीर्थ है। सब भूतों पर दया करना और सरलता को तीर्थ कहा गया है।

दानं तीर्थं दमस्तीर्थं सन्तोषस्तीर्थमुच्यते। 
ब्रह्मचर्यं परं तीर्थं तीर्थं च प्रियवादिता।।

दान देना‚ इन्द्रियों का दमन करना‚ संतोष धारण करना तीर्थ है‚ मधुर बोलना तीर्थ है। ब्रह्मचर्य को तो परम तीर्थ कहा गया है।

ज्ञानं तीर्थं धृतिस्तीर्थं तपस्तीर्थमुदाहृतम्। 
तीर्थानामपि तत्तीर्थं विशुद्धिर्मनसः परा।।

ज्ञान‚ धैर्य‚ तपस्या तीर्थ कहे गये है। मन की निर्मलता को तो तीर्थों का भी तीर्थ कहा है।

न जलाप्लुतदेहस्य स्नानमित्यभिधीयते। 
स स्नातो यो दमस्नातः शुचिः शुद्धमनोमलः।।

केवल जल में शरीर को भिगो लेना स्नान नहीं माना जा सकता। अपितु जिसने इन्द्रियों पर नियंत्रण स्थापित कर लिया है‚ वही नहाया हुआ है तथा जिसने मन के मल को दूर हटा दिया है‚ वही शुद्ध कहा जाता है। 

    इस प्रकार चौदह आंतरिक तीर्थों के विषय में बताया गया। यहां भौतिक तीर्थों का महत्त्व कम आंकना उद्देश्य नही है बल्कि भीतर के इन चौदह तीर्थों के माहात्म्य को प्रदर्शित किया गया है। 

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