पद्मा महर्षि पिप्पलाद की धर्मपत्नी थी तथा इंद्रसावर्णि मनु के वंश में उत्पन्न हुए राजा अनरण्य की पुत्री थी। एक बार गंगा जाती हुई पद्मा को देखकर राजा का वेश धारण किये हुए साक्षात् धर्म ने उसके मन के भावों को जानने के लिये कामी पुरुष की भांति प्रणय निवेदन करते हुए कहा- तुम्हारी यह यौवनावस्था व सौन्दर्य राजा के योग्य है, उस बूढे और तपस्वी पिप्पलाद के साथ रहने मे तुम्हारी शोभा नही है, उस मरणोन्मुख वृद्ध पति का त्याग करके तुम मुझ राजेंद्र की ओर देखो, क्योंकि पूर्वजन्म के पुण्यवश सौन्दर्य की प्राप्ति होती है और उसकी सफलता किसी रसिक के आंलिगन से ही होती है।
ऐसा कहकर धर्म ने पद्मा का हाथ पकडना
चाहा, तब
पद्मा उसे फटकारती हुई बोली- अधम राजा! तू महान पापी है, दूर हट। तपस्या के कारण पवित्र देहवाले
मुनिश्रेष्ठ पिप्पलाद को छोडकर क्या मै तुझ जैसे स्त्रीजित रतिलंपट के साथ
विहार करूंगी। स्त्रीजित पुरुष के स्पर्शमात्र से समस्त पुण्य नष्ट हो जाता है, तू
मुझ माता में स्त्रीभाव करके मुझसे प्रणय-याचना कर रहा है, अत: मेरे शाप से समय पर तेरा क्षय हो
जाएगा।
तब शाप को सुनकर धर्म ने अपना वास्तविक
स्वरूप प्रकट किया और कहा- माता! तुम मुझे धर्मज्ञों का गुरु धर्म जानो। हे सती!
मै परायी स्त्री में सदैव मातृबुद्धि रखता हूं, तुम्हारे मन का भाव जानने के लिये ही मै
तुम्हारे पास आया था। तथापि मुझे शाप देकर तुमने उचित ही किया है। यह कहकर धर्म उस
राजकुमारी पद्मा के सामने खडे हो गये।
इस प्रकार कहने वाली उस पतिव्रता से धर्म
ने विनयपूर्वक कहा- हे धन्ये! पतिव्रते! तुम मेरी रक्षा करनेवाली हो, मै तुम्हे वर प्रदान कर रहा हूं, ग्रहण करो। तुम्हारा पति युवा, रूपवान्, गुणवान् और निरंतर यौवन सम्पन्न हो और
हे साध्वि! तुम्हे भी परमैश्वर्य समेत स्थायी यौवन प्राप्त हो। कुबेर के भवनों
से भी अधिक तुम्हारे भवन हो, तुम अपने पति से भी अधिक गुणी व चिरंजीवी दस पुत्रों
की माता बनो।
पद्मा वर प्राप्तकर व धर्मराज की
प्रदक्षिणा कर अपने घर चली गयी। धर्मराज ने भी प्रत्येक सभा में उस पतिव्रता की
प्रशंसा की।
इस प्रकार इस घटना में सती का माहात्म्य
प्रदर्शित होता है। पृथ्वी को धारण करनेवाले जो सात स्तंभ है, उनमें
सती का भी एक स्थान है।
गोभिर्विप्रैश्च वेदैश्च सतीभि: सत्यवादिभि:। अलुब्धैर्दानशीलैश्च सप्तभिर्धार्यते मही।।
सती का तेज इतना व्यापक है कि उसने
धर्मराज जैसे समर्थ देवता को भी शापित कर दिया। धर्मराज को अणीमाण्डव्य ऋषि भी
शाप दे चुके है, जिस कारण उन्हे द्वापरयुग में विदुर के
रूप में जन्म ग्रहण करना पडा था। लेकिन यह कथा प्रचलित ही है। इसलिये सती पद्मा
की कथा बतायी गयी जिसे कि कम लोग ही जानते है।
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