भीष्म स्तुति | Bhishma Stuti

    शरशय्या पर पडे़ हुए पितामह भीष्म ने अपने अंतिम समय में भगवान् श्रीकृष्ण को अपने समक्ष देखकर अपना अहोभाग्य समझा और एकाग्रचित्त से उनकी इस प्रकार स्तुति की— 


इति मतिरुपकल्पिता वितृष्णा भगवति सात्वतपुंगवे विभूम्नि।
स्वसुखमुपगते क्वचिद्विहर्तुं प्रकृतिमुपेयुषि यद्भवप्रवाहः।।

अब मेरी यह बुद्धि‚ जो विविध साधनों के अनुष्ठान से कामनारहित हो गयी है‚ सात्वतशिरोमणि अनंत भगवान् को समर्पित है‚ जो निजानंद में मग्न होकर भी कभी विहार की इच्छा से प्रकृति को स्वीकार कर लेते है‚ जिससे यह सृष्टि-परंपरा चलती है।

त्रिभुवनकमनं तमालवर्णं रविकरगौरवराम्बरं दधाने।
वपुरलककुलावृताननाब्जं विजयसखे रतिरस्तु मेऽनवद्या।।

जिनका शरीर त्रिभुवन-सुंदर और श्याम तमाल के समान श्यामल है‚ जिस पर सूर्यरश्मियों के समान श्रेष्ठ पीताम्बर लहरा रहा है और कमल जैसे मुख पर घुंघराली अलकें लटक रही हैं‚ उन पार्थसखा श्रीकृष्ण में मेरी निष्कपट प्रीति हो।

युधि तुरगरजोविधूम्रविष्वक्कचलुलितश्रमवार्यलंकृतास्ये।
मम निशितशरैर्विभिद्यमानत्वचि विलसत्कवचेऽस्तु कृष्ण आत्मा।।

युद्ध में उनके मुख पर लहराते हुए घुंघराले केश घोड़ों की टाप की धूल से मटमैले हो गये थे और पसीने की बूंदे शोभायमान हो रही थीं। मैं अपने तीखे बाणों से उनकी त्वचा को बींध रहा था। उन सुंदर कवचमण्डित श्रीकृष्ण के प्रति मेरा अन्तःकरण समर्पित हो जावें।

सपदि सखिवचो निशम्य मध्ये निजपरयोर्बलयो रथं निवेश्य।
स्थितवति परसैनिकायुरक्ष्णा हृतवति पार्थसखे रतिर्ममास्तु।।

अपने सखा अर्जुन की बात सुनकर जो तुरंत पाण्डव सेना और कौरव सेना के मध्य में अपना रथ ले आये और वहां स्थित होकर जिन्होंने अपनी दृष्टि से शत्रुपक्ष के सैनिकों की आयु छीन ली‚ उन पार्थसखा श्रीकृष्ण में मेरी प्रीति हो।

व्यवहितपृतनामुखं निरीक्ष्य स्वजवधाद्विमुखस्य दोषबुद्ध्या।
कुमतिमहरदात्मविद्यया यश्चरणरतिः परमस्य तस्य मेऽस्तु।।

जब दूर से विपक्षी सेना को देखकर अर्जुन दोषबुद्धि से स्वजनों के वध से विमुख हो गया। उस समय जिन्होंने आत्मविद्या का उपदेश कर उसकी कुमति का हरण कर लिया‚ उन पुरुषोत्तम के चरणों में मेरी प्रीति हो।

स्वनिगममपहाय मत्प्रतिज्ञामृतमधिकर्तुमवप्लुतो रथस्थः।
धृतरथचरणोऽभ्ययाच्चलद्गुर्हरिरिव हन्तुमिभं गतोत्तरीयः।।

मेरी प्रतिज्ञा को ऊँची एवं सत्य करने के लिये अपनी प्रतिज्ञा तोडकर वे रथ से नीचे कूद पड़े और रथ का पहिया लेकर मुझ पर उसी प्रकार झपट पड़े जिस प्रकार हाथी काे मारने के लिये सिंह झपट पड़ता है। वे पृथ्वी को कंपाते हुए मेरी ओर इतने वेग से दौड़े कि उनका उत्तरीय वस्त्र गिर पड़ा।

शितविशिखहतो विशीर्णदंशः क्षतजपरिप्लुत आततायिनो मे।
प्रसभमभिससार मद्वधार्थं स भवतु मे भगवान् गतिर्मुकुन्दः।।

मुझ आततायी के तीखे बाणों के प्रहार से उनका कवच टूट गया था और सारा शरीर रुधिर से सन गया था। तब भी बलपूर्वक मेरे वध के लिये जो मेरी ओर दौड़े आ रहे थे‚ वे भगवान् मुकुन्द मेरी गति हों।

विजयरथकुटुम्ब आत्ततोत्रे धृतहयरश्मिनि तच्छ्रियेक्षणीये।
भगवति रतिरस्तु मे मुमूर्षोर्यमिह निरीक्ष्य हता गताः सरूपम्।।

अर्जुन के रथ की रक्षा में सावधान जिनके एक हाथ में चाबुक तो दूसरे हाथ में घोड़ों की रास थी‚ इस विलक्षण शोभा का दर्शन करते हुए जो योद्धा रण में मारे गये‚ वे उनके स्वरूप को प्राप्त हो गये‚ उन्ही पार्थसखा भगवान् में मुझ मरणासन्न की प्रीति हो।

ललितगतिविलासवल्गुहासप्रणयनिरीक्षणकल्पितोरुमानाः।
कृतमनुकृतवत्य उन्मदान्धाः प्रकृतिमगन् किल यस्य गोपवध्वः।।

जिनकी सुन्दर चाल‚ हाव-भाव युक्त चेष्टाओं‚ मधुर मुस्कान और प्रेमभरी चितवन से अत्यन्त सम्मानित गोपियाँ प्रेमोन्माद से मतवाली होकर जिनकी लीलाओं का अनुकरण करके तन्मय  हो गयी थीं‚ उन्हीं गोपिकानंदन में मेरी प्रीति हो।

मुनिगणनृपवर्यसंकुलेऽन्तःसदसि युधिष्ठिरराजसूय एषाम्।
अर्हणमुपपेद ईक्षणीयो मम दृशिगोचर एष आविरात्मा।।

जब युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ हो रहा था‚ मुनियो एवं राजाओं से भरी सभा में सबसे पहले इन्हीं सबके दर्शनीय भगवान् की मेरे नेत्रों के समक्ष पूजा हुई थी; वे ही सबके आत्मा प्रभु आज मेरे सामने खड़े है।

तमिममहमजं शरीरभाजां हृदि हृदि धिष्ठितमात्मकल्पितानाम्।
प्रतिदृशमिव नैकधार्कमेकं समधिगतोऽस्मि विधूतभेदमोहः।।

जैसे एक सूर्य अनेक आँखों से अनेक रूपों में दिखाई देते हैं‚ वैसे ही ये अजन्मा प्रभु सबके हृदय में रहते हुए भी अपने द्वारा रचित अनेक शरीरधारियों के भीतर नानाविध जान पड़ते हैं। उन्हीं भगवान् श्रीकृष्ण को मैं भेद-भ्रम से रहित होकर प्राप्त हो गया हूँ। 

 संदर्भः श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 9



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