यह प्रसंग उस समय का है जब वनवास करते हुए युधिष्ठिर महात्मा दुर्वासा को अपने शिष्यों के साथ अतिथि सत्कार के लिये आमंत्रित कर लेते है‚ दुर्वासा भी इसे स्वीकार कर शिष्यों सहित स्नान के लिये चले जाते है‚ लेकिन तब तक द्रौपदी भोजन कर चुकी होती है। अक्षयपात्र में निहित वर के अनुसार उसमें द्रौपदी के भोजन करने तक ही भोजन अक्षय बना रह सकता था। अब महात्मा दुर्वासा का शिष्यों सहित भोज कैसे संपन्न किया जाय‚ तब द्रौपदी इस भीषण समस्या के निवारण के लिये मन ही मन श्रीकृष्ण का स्मरण करती है—
वासुदेव जगन्नाथ प्रणतार्तिविनाशन।।
प्रपन्नपाल गोपाल प्रजापाल परात्पर।
आकूतीनां च चित्तीनां प्रवर्तक नतास्मि ते।।
वरेण्य वरदानन्त अगतीनां गतिर्भव।
पुराणपुरुष प्राणमनोवृत्त्याद्यगोचर।।
सर्वाध्यक्ष पराध्यक्ष त्वामहं शरणं गता।
पाहि मां कृपया देव शरणागतवत्सल।।
नीलोत्पलदलश्याम पद्मगर्भारुणेक्षण।
पीताम्बरपरीधान लसत्कौस्तुभभूषण।।
त्वमादिरन्तो भूतानां त्वमेव च परायणम्।
परात्परतरं ज्योतिर्विश्वात्मा सर्वतोमुखः।।
त्वामेवाहुः परं बीजं निधानं सर्वसम्पदाम्।
त्वया नाथेन देवेश सर्वापद्भ्यो भयं न हि।।
द्रौपदी की इस स्तुति को सुनकर श्रीकृष्ण तुरंत वहां आ पहुँचते है और अक्षयपात्र के भीतर कोने में चिपके हुए साग का भोग लगाकर संकल्प कर लेते है कि इस साग से विश्वात्मा श्रीहरि तृप्त हो जायँ। उनके ऐसा संकल्प करते ही दुर्वासा व उनके शिष्यों को जल में स्नान करते हुए यह प्रतीत होता है कि मानो उनका पेट गले तक भर गया हो‚ अब उनके भीतर अन्न पाने का थोड़ा भी स्थान नहीं है। तब वे पाण्डवों के अपमान के भय से अपने शिष्यों के साथ अन्यत्र चल पड़ते है। इस प्रकार द्रौपदी ने श्रीकृष्ण की स्तुति करके पाण्डवों को दुर्वासा के कोप का भाजन होने से बचा लिया।
संदर्भः— महाभारत वनपर्व अध्याय 263
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