नाभाग चरित | कृष्णदर्शन अवतार

     मनुपुत्र नभगके पुत्रका नाम नाभाग था। जब वह दीर्घकाल तक ब्रह्मचर्यका पालन करके लौटा‚ तब बडे़ भाईयोंने अपनेसे छोटे किन्तु विद्वान् भाईको हिस्सेमें केवल पिताको ही दिया‚ धन संपत्ति उन्होंने पहले ही आपसमें बाँट ली थी। नाभागने अपने पितासे जाकर कहा— पिताजीǃ मेरे बड़े भाईयोंने हिस्सेमें मुझे आपको ही दिया है। तब पिताने कहा— पुत्रǃ तुम उनकी बात न मानो। देखो‚ ये बुद्धिमान् आंगिरस गोत्रके ब्राह्मण इस समय एक यज्ञ कर रहे हैं। परन्तु वे प्रत्येक छठे दिन अपने कर्ममें भूल कर बैठते हैं। तुम उन महात्माओंके पास जाकर उन्हें वैश्वदेवसंबंधी दो सूक्त बतला दो; जब वे स्वर्ग जाने लगेंगे‚ तब यज्ञसे बचा हुआ अपना सारा धन तुम्हें दे देंगे। 

    नाभागने पिताके आज्ञानुसार वैसा ही किया। उन आंगिरसगोत्री ब्राह्मणोंने भी यज्ञका बचा हुआ धन उसे दे दिया और स्वर्ग चले गये। जब वह उस धनको लेने लगा‚ तब उत्तर दिशासे एक काले रंगका पुरुष आया। उसने कहा— इस यज्ञ भूमिमें जो कुछ बचा हुआ है‚ वह सब धन मेरा है। नाभाग ने कहा— ऋषियोंने यह धन मुझे दिया है‚ इसलिये मेरा है। इस पर उस पुरुषने कहा— हमारे विवादके विषयमें तुम्हारे पितासे ही प्रश्न किया जाय।

    तब नाभागने जाकर पितासे पूछा। पिताने कहा— एक बार दक्षप्रजापतिके यज्ञमें ऋषिगण यह निश्चय कर चुके हैं कि यज्ञभूमिमें जो बच जाता है‚ वह सब रुद्रदेवका भाग है। इसलिये वह धन तो महादेवको मिलना ही चाहिये। तब नाभागने जाकर उस काले रंगके पुरुषको प्रणाम किया और कहा— हे प्रभोǃ यज्ञभूमिकी सारी वस्तुएँ आपकी हैं‚ मैं सिर झुकाकर आपसे क्षमा माँगता हूँ। 

    तब भगवान् रुद्रने कहा— तुम्हारे पिताने धर्मके अनुकूल निर्णय दिया है और तुमने भी मुझसे सत्य ही कहा है। तुम वेदोंका अर्थ तो पहलेसे ही जानते हो। अब मैं तुम्हें सनातन ब्रह्मतत्त्वका ज्ञान देता हूँ। यहाँ यज्ञमें बचा हुआ जो मेरा अंश है‚ यह धन भी मैं तुम्हें ही दे रहा हूँ; तुम इसे स्वीकार करो। इतना कहकर सत्यप्रेमी भगवान् रुद्र अन्तर्धान हो गये।

    जो मनुष्य प्रातः और सायंकाल एकाग्रचित्तसे इस आख्यानका स्मरण करता है‚ वह प्रतिभाशाली एवं वेदज्ञ तो होता ही है‚ साथ ही अपने स्वरूपको भी जान लेता है। भगवान् रुद्रने जिस रूपमें नाभागको दर्शन दिये‚ वह कृष्णदर्शन नामक अवतारसे प्रसिद्ध है। यहाँ सत्यपालनके प्रतापसे नाभागको धन तो मिला ही अपितु ब्रह्मविज्ञानकी भी प्राप्ति हुई। जबकि उसके भ्रातागण केवल लौकिक धनको प्राप्तकर रीते ही रह गये। 

संदर्भः— श्रीमद्भागवत महापुराण नवम स्कंध चतुर्थ अध्याय

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