कुन्ती स्तुति | kunti stuti

     महाभारत युद्ध के उपरांत अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से जब भगवान् श्रीकृष्ण ने उत्तरा के गर्भ की रक्षा की और स्वयं हस्तिनापुर से प्रस्थान करने लगे तब कुन्ती ने श्रीकृष्ण की बड़ी सुंदर स्तुति की—

नमस्ये पुरुषं त्वाद्यमीश्वरं प्रकृतेः परम्।
अलक्ष्यं सर्वभूतानामन्तर्बहिरवस्थितम्।।

आप समस्त जीवों के बाहर और भीतर एकरस स्थित हैं‚ फिर भी उनके द्वारा देखे नहीं जाते; क्योंकि आप प्रकृति से परे आदिपुरुष परमेश्वर हैं। मै आपको नमन करती हूं।

मायाजवनिकाच्छन्नमज्ञाधोक्षजमव्ययम्।
न लक्ष्यसे मूढदृशा नटो नाट्यधरो यथा।।

अपनी माया के परदे से ढके रहनेवाले आप अधोक्षज और अविनाशी पुरषोत्तम को भला मैं मूढ नारी कैसे जान सकती हूंॽ जैसे मूढजन दूसरा वेश धारण किये हुए नट को प्रत्यक्ष देखकर भी नहीं पहचान सकते‚ वैसे ही आप सामने होकर भी पहचान में नही आते।

तथा परमहंसानां मुनीनाममलात्मनाम्।
भक्तियोगविधानार्थं कथं पश्येम हि स्त्रियः।।

आप विमल हृदयवाले विचारवान् परमहंसों के हृदय में अपने भक्तियोग का विधान करने के लिये अवतीर्ण हुए हैं। फिर हम सामान्य स्त्रियां आपको कैसे पहचान सकती है।

कृष्णाय वासुदेवाय देवकीनन्दनाय च।
नन्दगोपकुमाराय गोविन्दाय नमो नमः।।

आप श्रीकृष्ण‚ वासुदेव‚ देवकीनंदन‚ नन्दगोप के आत्मज गोविन्द को बारम्बार नमस्कार है।

नमः पकंजनाभाय नमः पकंजमालिने।
नमः पकंजनेत्राय नमस्ते पंकजांघ्रये।।

आप पद्मनाभ‚ कमलनयन‚ कमलों की माला धारण करने वाले एवं कमल के समान चरणोंवाले प्रभु को हमारा नमस्कार है।

यथा हृषीकेश खलेन देवकी कंसेन रुद्धातिचिरं शुचार्पिता।
विमोचिताहं च सहात्मजा विभो त्वयैव नाथेन मुहुर्विपद्गणात्।।

हृषीकेशǃ जैसे आपने दुष्ट कंस के द्वारा कैद की गयी और चिरकाल से शोकग्रस्त देवकी की रक्षा की थी‚ वैसे ही हे नाथǃ हे विभोǃ पुत्रों के साथ मेरी भी आपने बार-बार विपत्तियों से रक्षा की है।

विषान्महाग्नेः पुरुषाददर्शनादसत्सभाया वनवासकृच्छ्रतः।
मृधे मृधेऽनेकमहारथास्त्रतो द्रौण्यस्त्रतश्चास्म हरेऽभिरक्षिताः।।

हरेǃ विष से‚ लाक्षागृह की अग्नि से‚ राक्षसों की दृष्टि से‚ दुष्टों की द्यूतसभा से‚ वनवास की विपत्तियों से‚ अनेक बार के युद्धों में महारथियों द्वारा प्रयुक्त अस्त्रों से और इसी समय अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से आपने हमारी रक्षा की है।

विपदः सन्तु नः शश्वत्तत्र तत्र जगद्गुरो।
भवतो दर्शनं यत्स्यादपुनर्भवदर्शनम्।।

जगद्गुरोǃ हम पर बारम्बार विपत्तियाँ आती रहे क्योंकि उन्हीं में आपके दर्शन हुआ करते है और आपके दर्शनों से पुनर्जन्म की बाधा का नाश हो जाता है।

जन्मैश्वर्यश्रुतश्रीभिरेधमानमदः पुमान्।
नैवार्हत्यभिधातुं वै त्वामकिंचनगोचरम्।।

जन्म‚ ऐश्वर्य‚ विद्या और संपत्ति के कारण जिसका मद बढ रहा है‚ वह व्यक्ति तो आपका नाम भी नहीं ले सकता क्योंकि आप तो उनको दर्शन देते हैं‚ जो अंकिचन है। 

नमोऽकिंचनवित्ताय निवृत्तगुणवृत्तये।
आत्मारामाय शान्ताय कैवल्यपतये नमः।।

आप निर्धनों के परमधन है‚ गुणवृत्तियों से निवृत्त है। आत्माराम‚ शान्त और मोक्षपद के स्वामी आपको नमस्कार है। 

मन्ये त्वां कालमीशानमनादिनिधनं विभुम्।
समं चरन्तं सर्वत्र भूतानां यन्मिथः कलिः।।

मैं आपको अनादि‚ अनन्त‚ सर्वव्यापक‚ सबका नियामक‚ कालरूप परमेश्वर समझती हूं। परस्पर विरुद्ध रहनेवाले प्राणियोंमें भी आप समानरूप से सर्वत्र विचरण कर रहे है। 

न वेद कश्चिद्भगवंश्चिकीर्षितं तवेहमानस्य नृणां विडम्बनम्।
न यस्य कश्चिद्दयितोऽस्ति कर्हिचिद् द्वेष्यश्च यस्मिन् विषमा मतिर्नृणाम्।।

भगवन्ǃ जब आप नरलीला करते है‚ तब आपकी चेष्टाओं को कोई नही जानता। आपको न कोई प्रिय है‚ न अप्रिय। आपके संबंध में लोगों की बुद्धि ही विषम हुआ करती है।

जन्म कर्म च विश्वात्मन्नजस्याकर्तुरात्मनः।
तिर्यङ्नृृषिषु  यादःसु तदत्यन्तविडम्बनम्।।

हे विश्वात्मन्ǃ विश्वरूपǃ आप अजन्मा और अकर्ता है। फिर भी पशु-पक्षी‚ मनुष्य‚ ऋषि‚ जलचर आदि योनियों में आप जन्म लेकर उनके अनुरूप कर्म करते है‚ यह आपकी महती लीला है। 

गोप्याददे त्वयि कृतागसि दाम तावद् या ते दशाश्रुकलिलांजनसम्भ्रमाक्षम्।
वक्त्रं निनीय भयभावनया स्थितस्य सा मां विमोहयति भीरपि यदि्बभेति।।

बाल्यावस्था में आपके चांचल्य से क्षुब्ध होकर गोपी यशोदा ने जब हाथ में रस्सी पकड़ ली थी‚ तब आपके चंचल नेत्रों से काजल से मिले हुए अश्रु कपोलों पर बह चले थे। भय की भावना से आपका मुख नीचे की ओर झुका हुआ था। आपकी वह दशा विचारकर मै मोहित हो जाती हूं क्योंकि आप तो भय को भी भय देनेवाले है।

केचिदाहुरजं जातं पुण्यश्लोकस्य कीर्तये।
यदोः प्रियस्यान्ववाये मलस्येव चन्दनम्।।

आप अजन्मा के जन्मरहस्य के विषय में कोई बतलाते है कि आप अपने प्रिय पुण्यश्लोक राजा यदु की कीर्ति के विस्तार के लिये उनके वंश में उत्पन्न हुए है‚ जैसे मलयाचल में चंदन उत्पन्न होता है।

अपरे वसुदेवस्य देवक्यां याचितोभ्यगात्।
अजस्त्वमस्य क्षेमाय वधाय च सुरद्विषाम्।।

कोई कहते है कि वसुदेव और देवकी ने पूर्व में आपसे वर प्राप्त किया था‚ इसलिये आप अजन्मा होकर भी विश्व के कल्याण व दैत्यों के नाश के लिये उनके पुत्र बने है।

भारावतारणायान्ये भुवो नाव इवौदधौ।
सीदन्त्या भूरिभारेण जातो ह्यात्मभुवार्थितः।।

अन्यजन यों कहते हैं कि यह पृथ्वी अत्यन्त भार से समुद्र में डूबती नाव की भांति आक्रान्त हो रही थी‚ तब ब्रह्मा की प्रार्थना पर उसका भार उतारने के लिये आप प्रकट हुए। 

भवेऽस्मिन् क्लिश्यमानानामविद्याकामकर्मभिः।
श्रवणस्मरणार्हाणि करिष्यन्निति केचन।।

कोई यों कहते हैं कि जो इस संसार में अज्ञान‚ कामना और कर्मों के बंधन में पड़े हुए क्लेश पा रहे है‚ उनके लिये श्रवण एवं स्मरण करने योग्य लीला करनेके विचार से आपने अवतार लिया है।

शृण्वन्ति गायन्ति गृणन्तयभीक्ष्णशः स्मरन्ति नन्दन्ति तवेहितं जनाः।
त एवं पश्यन्त्यचिरेण तावकं भवप्रवाहोपरमं पदाम्बुजम्।।

भक्तजन निरन्तर आपके चरित्रों का श्रवण‚ गान‚ कीर्तन एवं स्मरण करके आनंदित होते हैं; वे ही शीघ्र आपके उस चरणकमल का दर्शन करते हैं; जो संसार के आवागमन का नाश कर देता है।

अप्यद्य नस्त्वं स्वकृतेहित प्रभो जिहाससि स्वित्सुहृदोऽनुजीविनः।
येषां न चान्यद्भवतः पदाम्बुजात् परायणं राजसु योजितांहसाम्।।

प्रभोǃ क्या अब आप अपना कार्य संपूर्ण कर अपने आश्रित और संबंधीजनों को छोड़कर जाना चाहते हैं। आपके चरणकमलों के अतिरिक्त हमें अन्य किसी का सहारा नहीं है। पृथ्वी के राजाओं के तो हम विरोधी हो ही गये हैं।

के वयं नामरूपाभ्यां यदुभिः सह पाण्डवाः।
भवतोऽदर्शनं यर्हि हृषीकाणामिवेशितुः।।

जैसे बिना जीव के इंद्रियां शक्तिहीन हो जाती हैं‚ वैसे ही आपके दर्शन के बिना यदुवंशियों के साथ हम पाण्डवों के नाम व रूप का क्या महत्व रह जाता है।

नेयं शोभिष्यते तत्र यथेदानीं गदाधर।
त्वत्पदैरंकिता भाति स्वलक्षणविलक्षितैः।।

गदाधरǃ आपके विलक्षण चरणचिह्नों से चिहि्नत यह कुरुजांगल देश की भूमि आज जैसी शोभायमान है‚ वैसी आपके चले जाने के बाद न रहेगी।

इमे जनपदाः स्वृद्धाः सुपक्वौषधिवीरुधः।
वनाद्रिनद्युदन्वन्तो ह्येधन्ते तव वीक्षितैः।।

आपकी दृष्टि के प्रभाव से ही यह देश पकी हुई औषधियों तथा लता-वृक्षों से समृद्ध हो रहा है। ये वन‚ पर्वत‚ नदी और समुद्र भी आपकी दृष्टि से वृद्धि को प्राप्त हो रहे है।

अथ विश्वेश विश्वात्मन् विश्वमूर्ते स्वकेषु मे।
स्नेहपाशमिमं छिन्धि दृढं पाण्डुषु वृष्णिषु।।

हे विश्वेशǃ विश्वात्मनǃ विश्वमूर्तेǃ यदुवंशियों और पाण्डवों के प्रति अपनत्व से बढे हुए मेरे इस दृढ स्नेहबंधन को आप काट डालिये।

त्वयि मेऽनन्यविषया मतिर्मधुपतेऽसकृत्।
रतिमुद्वहतादद्धा गंगेवौघमुदन्वति।।

मधुपतेǃ जैसे गंगा की अखण्ड धारा समुद्रमें गिरती रहती है‚ वैसे ही मेरी बुद्धि किसी दूसरी ओर न जाकर आपसे ही निरन्तर प्रेम करती रहे।

श्रीकृष्ण कृष्णसख वृष्ण्यृषभावनिध्रुग्राजन्यवंशदहनानपवर्गवीर्य।
गोविन्द गोद्विजसुरार्तिहरावतार योगेश्वराखिलगुरो भगवन्नमस्ते।।

हे पार्थसखा श्रीकृष्णǃ यदुवंशशिरोमणेǃ आप पृथ्वी के भाररूप राजवेशधारी दैत्यों को जलाने के लिये अग्निस्वरूप हैं। हे अनन्तशक्तेǃ गोविन्दǃ हे योगेश्वरǃ हे अखिलगुरोǃ आपका यह अवतार गौ‚ ब्राह्मण और देवताओं का दुःख मिटाने के लिये ही है। मै आपको नमन करती हूं।

संदर्भः— श्रीमद्भागवत प्रथम स्कन्ध अष्टम अध्याय








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