पुण्डरीकाक्षपार स्तोत्र | pundarikakshpaar-stotra

     इस पुण्डरीकाक्षपार स्तोत्र द्वारा कश्मीर नरेश राजर्षि वसु ने तीर्थश्रेष्ठ पुष्कर में तपस्यापूर्वक भगवान् नारायण की आराधना की थी।

नमस्ते पुण्डरीकाक्ष नमस्ते मधुसूदन।
नमस्ते सर्वलोकेश नमस्ते तिग्मचक्रिणे।।

विश्वमूर्तिं महाबाहुं वरदं सर्वतेजसम्।
नमामि पुण्डरीकाक्षं विद्याविद्यात्मकं विभुम्।।

आदिदेवं महादेवं वेदवेदांगपारगम्।
गम्भीरं सर्वदेवानां नमस्ये वारिजेक्षणम्।।

सहस्रशीर्षणं देवं सहस्राक्षं महाभुजम्।
जगत्संवाप्य तिष्ठन्तं नमस्ये परमेश्वरम्।।

शरण्यं शरणं देवं विष्णुं जिष्णुं सनातनम्।
नीलमेघप्रतीकाशं नमस्ये चक्रपाणिनम्।।

शुद्धं सर्वगतं नित्यं व्योमरूपं सनातनम्।
भावाभावविनिर्मुक्तं नमस्ये सर्वगं हरिम्।।

नान्यत्किंचित्प्रपश्यामि व्यतिरिक्तं तवाच्युत।
त्वन्मयं च प्रपश्यामि सर्वमेतच्चराचरम्।।


    इस स्तोत्र के प्रभाव से राजा वसु को ब्रह्मग्रह से मुक्ति मिली‚ जो उनके रोमकूपों में प्रवेश करके स्थित हो गया था। उस ब्रह्मग्रह ने राजा को बताया कि हे राजन्ǃ आपने भले ही भूरि दक्षिणावाले यज्ञों का अनुष्ठान किया था‚ लेकिन वे सभी यज्ञ भगवान् विष्णु के स्मरण से रहित थे। इसी कारण वे यज्ञ मुझे नष्ट न कर सके। इस बार आपने भगवान् विष्णु के जिस स्तव का पाठ किया है‚ उसके श्रवण से मैंने आपके रोमसमूह का त्याग कर  दिया और अपनी पूर्ववाली पापमूर्ति से मुक्त हो गया। राजा वसु भी इस स्तोत्र के प्रभाव से नारायण में लयीभूत हो गये। 

संदर्भः— वराहपुराण छठा अध्याय

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