श्रीराम-लक्ष्मण संवाद | Ram laxman samvad

    वनवासके प्रसंगमें पंचवटी में सुखपूर्वक बैठे हुए श्रीराम से ज्ञानप्राप्ति की इच्छा से लक्ष्मण प्रश्न करते है—

क बार प्रभु सुख आसीना। लछिमन वचन कहे छलहीना॥
सुर नर मुनि सचराचर साईं। मैं पूँछउ निज प्रभु की नाईं॥

एक बार प्रभु सुखपूर्वक बैठे हुए थे। तब लक्ष्मणने उनसे छलरहित वचन कहे- हे देवता, मनुष्य, मुनि एवं चराचरके स्वामी! मैं अपने प्रभुकी तरह आपसे पूँछता हूँ॥

मोहि समुझाइ कहहु सोइ देवा। सब तजि करौं चरणरज सेवा॥
कहहु ज्ञान विराग अरु माया। कहहु सो भगति करहु जेहिं दाया॥

देव! मुझे समझाकर वही कहिए, जिससे सब छोड़कर मैं आपकी चरणरजकी सेवा करूँ। ज्ञान, वैराग्य और मायाका वर्णन कीजिए। उस भक्तिको कहिए, जिसके कारण आप दया करते हैं॥

ईश्वर जीवहिं भेद प्रभु सकल कहहु समुझाइ।
जाते होइ चरण रति शोक मोह भ्रम जाइ॥

प्रभो! ईश्वर एवं जीवका भेद सब समझाकर कहिए, जिससे आपके चरणोंमें मेरी प्रीति हो और शोक, मोह एवं भ्रम नष्ट हो जाएँ॥

थोरेहि महँ सब कहउ बुझाई। सुनहु तात मति मन चित लाई॥
मैं अरु मोर तोर तै माया। जेहिं वश कीन्हे जीव निकाया॥

रामने कहा- हे तात! मैं थोड़ेमें सब समझाकर कहे देता हूँ। तुम मन, चित्त व बुद्धि लगाकर सुनो! मैं और मेरा, तू और तेरा- यही माया है, जिसने समस्त जीवोंको वश कर रखा है॥

गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानेहु भाई॥
तेहि कर भेद सुनहु तुम सोऊ। विद्या अपर अविद्या दोऊ॥

इंद्रियोंके विषयोंको एवं जहाँतक मन जाता है, हे भाई! उन सबको माया जानना। उसके भी एक विद्या और दूसरी अविद्या, इन दोनों भेदोंको तुम सुनो-॥

एक दुष्ट अतिशय दुखरूपा। जा वश जीव परे भवकूपा॥
एक रचइ जग गुण वश जाके। प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताके॥

एक दुष्ट और अतिशय दुःखरूप है, जिसके वश हो जीव संसाररूपी कुएँमें पड़ा हुआ है। एक जिसके वशमें गुण है, जो संसारकी रचना करती है, वह प्रभुसे प्रेरित है, उसमें अपना बल कुछ नही है॥

ज्ञान मान जहँ एकउ नाहीं। देख ब्रह्म रूप सब माहीं॥
कहिय तात सो परम विरागी। तृण सम सिद्धि तीनि गुण त्यागी॥

ज्ञान वह है, जहाँ मान आदि एक भी दोष नहीं है और जो सबमें समान रूपसे ब्रह्मको देखता है। हे तात! उसीको परम वैराग्यवान् कहना चाहिए, जो सारी सिद्धियों व तीनों गुणोंको तिनकेके समान त्याग चुका हो॥

माया ईश न आपु कहँ जान कहिय सो जीव।
बंध मोक्षप्रद सर्व पर माया प्रेरक सीव॥

जो माया, ईश्वर एवं अपने स्वरूपको नहीं जानता, उसे जीव कहना चाहिए। जो बंधन-मोक्ष देनेवाला, सबसे परे और मायाका प्रेरक है, वह शिव (ईश्वर) है॥

धर्म ते विरति योग ते ज्ञाना। ज्ञान मोक्षप्रद वेद बखाना॥
जाते बेगि द्रवउ मैं भाई। सो मम भगति भगत सुखदाई॥

धर्मसे वैराग्य एवं योगसे ज्ञान होता है। ज्ञान मोक्ष देनेवाला है- ऐसा वेदोंने वर्णन किया है। हे भाई! जिससे मैं शीघ्र प्रसन्न होता हूँ, वह मेरी भक्ति है जो भक्तोंको सुख देनेवाली है॥

सो स्वतंत्र अवलंब न आना। तेहि आधीन ज्ञान विज्ञाना॥
भगति तात अनुपम सुखमूला। मिलइ जो संत होइ अनुकूला॥

वह भक्ति स्वतंत्र है, उसको दूसरे साधनकी अपेक्षा नहीं है। ज्ञान-विज्ञान उसके अधीन हैं। हे तात! भक्ति अनुपम एवं सुखकी मूल है। वह तभी मिलती है, जब संत अनुकूल होते हैं॥

भगति कि साधन कहउ बखानी। सुगम पंथ मोहि पावहिं प्राणी॥
प्रथमहिं विप्र चरण अति प्रीती। निज निज कर्म निरत श्रुति रीती॥

अब मैं भक्तिके साधनोंका बखान करता हूँ- यह सुगम मार्ग है, जिससे जीव मुझे प्राप्‍त कर लेते हैं। पहले तो ब्राह्मणोंके चरणोंमें अति प्रीति हो एवं वेदकी रीतिके अनुसार अपने-अपने वर्णानुसार कर्मोंमें लगा रहे॥

एहि कर फल पुनि विषय विरागा। तब मम धर्म उपज अनुरागा॥
श्रवणादिक नव भक्ति दृढाहीं। मम लीला रति अति मन माहीं॥

इसका फल, फिर विषयोंसे विराग होगा। तब मेरे धर्ममें प्रेम उत्पन्न होगा। तब श्रवण आदि नौ प्रकारकी भक्तियाँ दृढ होंगी और मनमें मेरी लीलाओंके प्रति अति प्रेम होगा॥

संत चरण पंकज अति प्रेमा। मन क्रम वचन भजन दृढ नेमा॥
गुरु पितु मातु बंधु पति देवा। सब मोहि कहँ जानै दृढ सेवा॥

जिसका संतोंके चरणकमलोंमें अतिप्रेम हो, मन, वचन और कर्मसे भजनका दृढ नियम हो। जो मुझको गुरु, पिता, माता, भाई, पति और देवता सब कुछ जाने और सेवामें दृढ हो॥

मम गुण गावत पुलक शरीरा। गदगद गिरा नयन बह नीरा॥
काम आदि मद दंभ न जाके। तात निरंतर वश मैं ताके॥

मेरा गुण गाते हुए जिसका शरीर पुलकित हो जाए, वाणी गदगद हो जाए, नेत्रोंसे जल बहने लगे। काम, मद, दंभ आदि जिसमें न हों, हे भाई! मैं सदा उसके वशमें रहता हूँ॥

वचन कर्म मन मोरि गति भजन करहिं निष्काम।
तिन के हृदय सरोज महँ करउ सदा विश्राम॥

जिनको कर्म, वचन और मनसे मेरी गति है। जो निष्काम भावसे मुझे भजते हैं, उनके हृदयकमलमें मैं सदैव रहता हूँ॥

भक्तियोग सुनि अति सुख पावा। लछिमन प्रभु चरणनि सिर नावा॥
एहि विधि गए कछुक दिन बीती। कहत विराग ज्ञान गुण नीती॥

इस भक्तियोगको सुनकर लक्ष्मणने बहुत सुख पाया। उन्होंने प्रभुके चरणोंमें सिर नवाया। इस प्रकार वैराग्य, ज्ञान, गुण व नीति कहते हुए कुछ दिन बीत गए॥


    इस प्रकार श्रीरामने पहले मायाके स्वरूपको कहा‚ फिर ज्ञानको बतलाया‚ तत्पश्चात् जीव एवं ईश्वरके भेदको समझाया। सबसे बाद में भक्तियोग कहा क्योकि ज्ञान-वैराग्य सिद्ध हो जानेके बाद जीवके लिये कुछ कर्तव्य शेष नहीं रहता तब करनेके लिये भक्ति ही शेष रहती है। ऐसी भक्ति निष्काम और निंरतर होती है तथा इसीसे परमानंदकी प्राप्ति होती है। संतकृपासे जीव पहले भी भक्तिको पा सकता है तब भक्तिके पुत्रके रूपमें ज्ञान एवं वैराग्य स्वतः उसमें आविर्भूत हो जाते है। अतः भक्ति व्यापक है‚ ज्ञान वैराग्यके पहले भी है और ज्ञान वैराग्यके बाद भी। 

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