श्रीराम-वाल्मीकि संवाद | भगवान् कहां रहते हैॽ

     वनवास के समय जब प्रभु श्रीराम अपने भाई लक्ष्मण व पत्नी सीता के साथ ऋषि वाल्मीकि के आश्रम में पहुंचते है। वाल्मीकि उन्हें देखकर बहुत आह्लादित होते है और उनकी सुंदर स्तुति करते हैं। तब श्रीराम अपने निवास के लिये ऋषि से स्थान पूछते हैं। वाल्मीकि हंसते हुए कहते है— हे प्रभुǃ पहले तो यह बताइये कि आपका निवास कहां नहीं है‚ तब आपको निवासस्थान बताया जाय। फिर भी आपके पूछने पर मैं बताता हूं—

सुनहु राम अब कहउ निकेता। जहां बसहु सिय लखन समेता।।
जिनके श्रवण समुद्र समाना। कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना।।
भरहि निरंतर होहिं न पूरे। तिन के हिय तुम कहं गृह रूरे।।

हे रामǃ अब वे स्थान कहता हूं‚ जहां आप सीता एवं लक्ष्मण समेत वास कीजिये। जिनके कान समुद्र की भांति आपकी सुंदर कथारूपी अनेक सुंदर नदियों से निरंतर भरते रहते है‚ पर कभी पूरे नही होते‚ उनके हृदय आपके लिये सुंदर घर हैं। 

लोचन चातक जिन करि राखे। रहहिं दरश जलधर अभिलाषे।।
निदरहिं सरित सिंधु सर भारी। रूप बिंदु जल होहिं सुखारी।।
तिन के हृदय सदन सुखदायक। बसहु बंधु सिय सह रघुनायक।।

जिन्होंने अपने नेत्रों को चातक बना रखा है‚ जो आपके दर्शनरूपी मेघ के लिये सदा लालायित रहते है। जो भारी नदियों‚ समुद्रों व झीलों का निरादर कर आपके सौन्दर्य की एक बूंद जल से सुखी हो जाते हैं। हे रघुनाथǃ उन लोगों के हृदयरूपी सुखदायी भवनों में आप भाई लक्ष्मण व सीता के सहित निवास कीजिये।

यश तुम्हार मानस विमल हंसिनी जीहा जासु।
मुक्ताहल गुणगण चुनइ राम बसहु हिय तासु।।

आपके यशरूपी निर्मल मानसरोवर में जिसकी जीभ हंसिनी बनी हुई आपके गुणसमूहरूपी मोतियों को चुगती रहती है। हे रामǃ आप उसके हृदय में बसिये। 

प्रभु प्रसाद शुचि सुभग सुवासा। सादर जासु लहइ नित नासा।।
तुमहि निवेदित भोजन करहीं। प्रभु प्रसाद पट भूषण धरहीं।।

जिसकी नासिका प्रभु के पवित्र एवं सुगंधित सुंदर प्रसाद को नित्य सादर ग्रहण करती है। जो आपको निवेदन करके भोजन करते है एवं आपके आपके प्रसादरूप वस्त्राभूषण धारण करते है।

शीश नवहिं सुर गुरु द्विज देखी। प्रीति सहित करि विनय विशेषी।।
कर नित करहिं राम पद पूजा। राम भरोस हृदय नही दूजा।।

जिनके मस्तक देवता‚ गुरु तथा द्विजों को देखकर नम्रता के साथ प्रेमसहित झुक जाते हैं‚ जिनके हाथ नित्य आपके चरणों की पूजा करते हैं। जिनके हृदय में राम का ही भरोसा है‚ दूसरा नहीं।

चरण राम तीरथ चलि जाहीं। राम बसहु तिन के मन माहीं।।
मंत्रराज नित जपहिं तुम्हारा। पूजहिं तुमहिं सहित परिवारा।।

जिनके चरण आपके तीर्थों में चलकर जाते हैं‚ हे रामǃ आपके उनके मन में वास  कीजिये। जो नित्य आपके मंत्रराज को जपते हैं और परिवार सहित आपकी पूजा करते हैं।

तर्पण होम करहिं विधि नाना। विप्र जेवांइ देहिं बहु दाना।।
तुम ते अधिक गुरुहि जिय जानी। सकल भाव सेवहिं सनमानी।।

जो अनेक प्रकार होम-तर्पण करते हैं। ब्राह्मणों को भोजन कराकर बहुत दान देते हैं‚ जो गुरु को हृदय में आपसे भी अधिक जानकर सर्वभाव से सम्मान करके उनकी सेवा करते हैं।

सब कर मांगहि एक फल रामचरण रति होउ।
तिन के मन मंदिर बसहु सिय रघुनंदन दोउ।।

सब कर्म करके उनका एकमात्र यही फल मांगते है कि श्रीराम के चरणों में प्रीति हो‚ उन लोगों के मनरूपी मंदिरों में सीता और रघुकुल को आनंदित करते वाले आप दोनों बसिये।।

काम क्रोध मद मान न मोहा। लोभ न क्षोभ न राग न द्रोहा।।
जिन के कपट दंभ नहिं माया। तिन के हृदय बसहु रघुराया।।

जिनके भीतर न तो काम‚ क्रोध‚ मद‚ अभिमान एवं मोह हैं। न लोभ‚ न क्षोभ‚ न राग‚ न द्वेष‚ न कपट‚ न दंभ और न ही माया है— हे रघुराजǃ आपके उनके हृदय में निवास कीजिये।

सब के प्रिय सब के हितकारी। दुख सुख सरिस प्रशंसा गारी।।
कहहिं सत्य प्रियवचन विचारी। जागत सोवत शरण तुम्हारी।।

जो सबके प्रिय और सबका हित करनेवाले हैं‚ जिन्हें दुख-सुख‚ प्रशंसा व गाली समान है‚ जो विचारकर सत्य और प्रिय वचन बोलते हैं‚ जो जागते-सोते आपकी शरण हैं।

तुमहि छाड़ि गति दूसरि नाहीं। राम बसहु तिन के मन माहीं।।
जननी सम जानहि परनारी। धन पराव विष ते विष भारी।।

आपको छोड़कर जिनकी कोई दूसरी गति नहीं है। हे रामǃ आप उनके मन में बसिये। जो परस्त्री को माता के समान जानते है और पराया धन जिनके लिये विष से भारी विष है।

जे हरषहि पर संपति देखी। दुखित होहि पर विपति विशेषी।।
जिनहि राम तुम प्राणपियारे। तिन के मन शुभ सदन तुम्हारे।।

जो दूसरे की संपत्ति देखकर हर्षित होते हैं‚ दूसरे की विपत्ति देखकर विशेषरूप से दुखी होते हैं। हे रामǃ जिनको आप प्राणों के समान प्यारे हैं‚ उनके मन आपके रहनेके योग्य शुभ सदन हैं।

स्वामि सखा पितु मातु गुरु जिन के सब तुम तात।
मन मंदिर तिन के बसहु सीय सहित दोउ भ्रात।।

हे तातǃ जिनके स्वामी‚ सखा‚ पिता‚ माता व गुरु सब कुछ आप ही हैं‚ उनके मनरूपी मंदिर में सीता के सहित आप दोनों भ्राता वास कीजिये।

अवगुण तजि सब के गुण गहहीं। विप्र धेनु हित संकट सहहीं।।
नीति निपुण निज कइ जग लीका। घर तुम्हार तिन कर मन नीका।।

जो अवगुण छोड़कर सबके गुणों को ग्रहण करते हैं‚ गो-ब्राह्मण के लिये संकट सहते हैं‚ नीति-निपुणता में जिनकी जगत् में मर्यादा है‚ उनका सुंदर मन आपका घर है।

गुण तुम्हार समुझइ निज दोषा। जेहि सब भांति तुम्हार भरोसा।
रामभगत प्रिय लागहि जेही। तेहि उर बसहु सहित वैदेही।।

जो गुणों को आपका और दोषों को अपना समझता है‚ जिसे सब प्रकार आपका भरोसा है। रामभक्त जिसे प्यारे लगते है‚ उसके हृदय में सीतासहित आप निवास कीजिये।

जाति पाति धन धरम बड़ाई। प्रिय परिवार सदन सुखदाई।।
सब तजि तुमहिं रहइ उर लाई। तेहि के हृदय रहहु रघुराई।।

जाति-पाति‚ धन‚ धर्म‚ बड़ाई‚ प्रिय परिवार व सुख देनेवाला घर; सबको छोड़कर जो केवल आपको हृदय में धारण किये रहता है‚ हे रघुनाथǃ आप उसके हृदय में रहिये।

स्वर्ग नरक अपवर्ग समाना। जहं तहं देख धरे धनु बाना।।
करम वचन मन राउर चेरा। राम करहु तेहि के उर डेरा।।

स्वर्ग‚ नरक एवं अपवर्ग जिसकी दृष्टि में समान हैं‚ क्योंकि जहां-तहां धनुष-बाण धरे हुए वह आपको देखता है। जो मन-वचन-कर्म से आपका दास है‚ हे रामǃ आपके उसके हृदय में वास कीजिये।

जाहि न चाहिय कबहुं कछु तुम सन सहज सनेह।
बसहु निरंतर तासु मन सो राउर निज गेह।।

जिसको कभी कुछ नहीं चाहिये‚ जिसका आपसे स्वाभाविक प्रेम है‚ आप उसके मन में निरंतर वास कीजिये‚ वह आपका अपना घर है।


    इस प्रकार ऋषि वाल्मीकि ने श्रीराम को अपने रहने के लिये सुंदर स्थान बतलाये। उपरोक्त गुणों से युक्त संतजनों के हृदय में भगवान् सदैव वास करते है या फिर जिनके हृदय में श्रीराम निवास करते है‚ उसमें ये गुण स्वतः आ जाते है। ऐसा वर्णन करने के बाद मुनिवर वाल्मीकि ने श्रीराम को चित्रकूट पर्वत पर वास करने के लिये कहा।




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