द्रौपदी की शील-रक्षा | श्रीकृष्ण का वस्त्रावतार

     चीरहरण के समय द्रौपदी ने अपने शील की रक्षा के लिये सभा में उपस्थित सभी वरिष्ठ महानुभावों जैसे कृपाचार्य‚ भीष्म पितामह‚ द्रोणाचार्य आदि से याचना की‚ लेकिन किसी ने उसकी रक्षा नहीं की। पाण्डव तो स्वयं को दांव पर लगा ही चुके थे‚ अतः उनसे रक्षा की आशा करना तो व्यर्थ ही था। अन्य कोई रक्षक न देखकर अंत में अपने शील की रक्षा हेतु द्रौपदी सर्वान्तर्यामी अनन्यशरण भगवान् श्रीकृष्ण की शरण लेती है और करुण प्रार्थना करती है—

गोविन्द द्वारकावासिन् कृष्ण गोपीजनप्रिय।
कौरवैः परिभूतां मां किं न जानासि केशव।।

हे गोविन्दǃ द्वारकाधीशǃ हे कृष्णǃ हे केशवǃ हे गोपिकाओं के प्रियǃ कौरवों के द्वारा सतायी जा रही मुझको क्या आप नही जान रहे हैॽ

हे नाथ हे रमानाथ व्रजनाथार्तिनाशन।
कौरवार्णवमग्नां मामुद्धरस्व जनार्दन।।

हे नाथǃ हे रमापतिǃ हे व्रजराजǃ हे आर्तिनाशनǃ हे जनार्दनǃ मै इस कौरवरूपी महान् समुद्र में डूबी हुई हूं‚ मेरा उद्धार कीजिये। 

कृष्ण कृष्ण महायोगिन् विश्वात्मन् विश्वभावन।
प्रपन्नां पाहि गोविन्द कुरुमध्येऽवसीदतीम्।।

हे कृष्णǃ हे कृष्णǃ हे महायोगिन्ǃ हे विश्वात्मन्ǃ हे विश्वभावनǃ हे गोविन्दǃ इन कौरवों के मध्य कष्ट पाती हुई मुझ शरणागत की रक्षा कीजिये।

    इस प्रकार त्रिभुवनपति श्रीहरि का बार बार चिंतन करके द्रौपदी अंचल से मुख ढककर जोर-जोर से रोने लगी। यह करुण पुकार सुनकर कृपालु श्रीकृष्ण गद्गद हो गये तथा शय्या और आसन छोड़कर दया से द्रवित हो पैदल ही दौड़ पडे़। याज्ञसेनी पांचाली अपनी रक्षा के लिये कृष्ण‚ विष्णु‚ हरि और नर आदि भगवन्नामों को जोर-जोर से पुकार रही थी। 


    उसी समय धर्मरूप महात्मा श्रीकृष्ण ने अव्यक्तरूप से उसके वस्त्र में प्रवेश करके भांति-भांति के सुन्दर वस्त्रों द्वारा द्रौपदी को आच्छादित कर लिया। द्रुपदकुमारी के वस्त्र खींचे जाते समय अनेक प्रकार के सैकड़ों रंग-बिरंगे वस्त्र प्रकट होते रहे। खींचते खींचते दुःशासन की बलवान् भुजाएं थक गयी लेकिन वस्त्रों का अंत नही आया। तब दुःशासन लज्जित हो चुपचाप बैठ गया।

    इस प्रकार हमने देखा कि समय विपरीत होने पर पांचाली के पांच देवतुल्य पराक्रमी पति भी उसकी रक्षा न कर सके; क्योकि वास्तविक पति तो भगवान् ही है‚ वे ही रक्षक है‚ वे ही शरणदाता और शरण लेने योग्य है। भगवान् के अतिरिक्त अन्य का आश्रय दुःखदायी ही होता है। भगवान् गीता में यहीं कहते है —

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।।



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