दत्तात्रेय चरित | इंद्रादि देवगणों को स्वर्ग की प्राप्ति

     महर्षि अत्रि की पतिव्रता पत्नी अनसूया के गर्भ से भगवान् विष्णु ने दत्तात्रेय के रूप में अवतार ग्रहण किया था।अत्रि एवं अनसूया की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान् विष्णु ने उनको वर दिया था कि मैने स्वयं को आपको दे दिया‚ इसलिये इनका नाम दत्तात्रेय पड़ा। इनकी उपासना के द्वारा ही राजा सहस्रार्जुन‚ अलर्क आदि ने भोग-मोक्ष की सिद्धियों को प्राप्त किया था। इनके 24 गुरु प्रसिद्ध है।

    एक बार कार्तवीर्य अर्जुन ने मुनिश्रेष्ठ गर्ग से प्रश्न किया कि हे महर्षेǃ देवताओं ने परम प्रतापी दत्तात्रेय की आराधना किस प्रकार की थी तथा दैत्यों द्वारा छीने गये इन्द्रपद को देवराज ने कैसे प्राप्त कियाॽ तब गर्ग ने कहा— पूर्वकाल में देवताओं और दैत्यों में बड़ा भयंकर युद्ध हुआ था। उस युद्ध में देवताओं का नायक जम्भ था और देवताओं के स्वामी इन्द्र। उन्हें युद्ध करते हुए एक दिव्य वर्ष बीत गया। उसके बाद देवता हार गये और दैत्य विजयी हुए। विप्रचित्ति आदि दानवों ने जब देवताओं को परास्त कर दिया‚ तब वे युद्ध से भागने लगे। फिर वे दैत्यसेना के वध की इच्छा से बृहस्पति के पास आये और उनके तथा वालखिल्य आदि महर्षियों के साथ बैठकर मन्त्रणा करने लगे।

    बृहस्पति ने कहा— देवताओǃ तुम अत्रि के तपस्वी पुत्र महात्मा दत्तात्रेय के पास जाओ और उन्हें भक्तिपूर्वक सन्तुष्ट करो। उनमें वर देने की शक्ति है। वे तुम्हें दैत्यों का नाश करने के लिये वर देंगे। तत्पश्चात् तुम सब मिलकर दैत्यों और दानवों का वध कर सकोगे। उनके ऐसा कहने पर देवगण दत्तात्रेय के आश्रम पर गये और वहाँ लक्ष्मी के साथ उनका दर्शन किया। सबसे पहले उन्होंने अपना कार्यसाधन करने के लिये उन्हें प्रणाम किया फिर स्तवन किया। भक्ष्य-भोज्य और माला आदि वस्तुएँ भेंट कीं। इस प्रकार वे आराधना में लग गये। जब दत्तात्रेय चलते तो देवता भी उनके पीछे-पीछे चलते। जब वे खडे़ होते तो देवता भी ठहर जाते और जब वे ऊँचे आसन पर बैठते तो देवता नीचे खड़े रहकर उनकी उपासना करते।

    एक दिन पैरों पर पड़े हुए देवताओं से भगवान् दत्तात्रेय ने पूछा— तुम लोग क्या चाहते होॽ जो मेरी इस प्रकार सेवा करते होॽ देवता बोले— मुनिश्रेष्ठǃ जम्भ आदि दानवों ने त्रिलोकी पर आक्रमण करके भूर्लोक‚ भुवर्लोक आदि पर अधिकार जमा लिया है और संपूर्ण यज्ञभाग भी हर लिये हैं; अतः आप हमारी रक्षा के लिये उनके वध का विचार कीजिये। आप निष्पाप एवं निर्लेप हैं। विद्या के प्रभाव से शुद्ध हुए आपके अन्तःकरण में ज्ञान की किरणें फैल रही हैं। दत्तात्रेय बोले— देवताओǃ यह सत्य है कि मेरे पास विद्या है और मैं समदर्शी भी हूँ; तथापि इस नारी के संग से मैं दूषित हो रहा हूँ; क्योंकि स्त्री का निरंतर सहयोग दोष का ही कारण होता है।

उनके ऐसा कहने पर देवता बोले— भगवन्ǃ ये साक्षात् जगन्माता लक्ष्मी हैं। इनमें पाप का लेश भी नहीं है; अतः ये कभी दूषित नहीं होती। जैसे सूर्य की किरणें ब्राह्मण और चाण्डाल दोनों पर पड़ती हैं; किन्तु अपवित्र नहीं होतीं। तब दत्तात्रेय ने हँसकर कहा— यदि तुम्हारा ऐसा ही विचार है तो समस्त असुरों को युद्ध के लिये यही बुला लाओ। मेरे दृष्टिपातजनित अग्नि से उनके बल और तेज दोनों क्षीण हो जायेंगे और इस प्रकार वे सब तेरी दृष्टि में पड़कर नष्ट हो जायेंगे। उनकी यह बात सुनकर देवताओं ने महाबली दैत्यों को युद्ध के लिये ललकारा तथा वे क्रोधपूर्वक देवताओं पर टूट पड़े। दैत्यों की मार खाकर देवता भय से व्याकुल होकर शीघ्र ही भागकर दत्तात्रेय के आश्रम पर आ गये। दैत्य भी उनके पीछे उसी स्थान पर आ पहुँचे।

    वहाँ उन्होंने महात्मा दत्तात्रेय को देखा। उनके वामभाग में चंद्रमुखी लक्ष्मी विराजमान थीं‚ वे सर्वांगसुन्दरी लक्ष्मी स्त्रीसमुचित संपूर्ण उत्तम गुणों से विभूषित थीं और मीठी वाणी में भगवान् से वार्तालाप कर रही थीं। उन्हे सामने देखकर दैत्यों के मन में उन्हें प्राप्त करने की इच्छा जाग्रत हो गयी। वे अपने बढते कामवेग को न रोक सके। अब तो उन्होंने देवताओं का पीछा छोड़ दिया और लक्ष्मी को हर लेने का विचार किया। उस पाप से मोहित हो जाने के कारण उनकी सारी शक्ति क्षीण हो गयी। वे आसक्त होकर आपस में कहने लगे— यह स्त्री त्रिभुवन का सारभूत रत्न है। यदि यह हमारी हो जाय तो हम कृतार्थ हो जायँ; इसलिये हम सब लोग मिलकर इसे पालकी पर बिठा लें और अपने घर को चलें। 

    आपस में ऐसी बात करके वे कामपीड़ित दैत्य वहाँ गये और लक्ष्मी को पालकी में बिठाकर उसे मस्तक पर ले अपने स्थान की ओर चल दिये। तब दत्तात्रेय हँसकर देवताओं से बोले— सौभाग्य से लक्ष्मी दैत्यों के सिर चढ गयीं। अब तुम लोग हथियार उठाकर इन दैत्यों का वध करो। अब इनसे डरने की आवश्यकता नहीं। मैंने इन्हें निस्तेज कर दिया है तथा परायी स्त्री के स्पर्श से इनका पुण्य जल गया है‚ जिससे ये शक्तिहीन हो गये है। तदनन्तर देवताओं ने नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से दैत्यों का मारना आंरभ किया। लक्ष्मी उनके सिर पर चढी  हुई थी‚ इसलिये वे नष्ट हो गये। इसके बाद लक्ष्मी वहाँ से महामुनि दत्तात्रेय के पास आ गयीं। उस समय संपूर्ण देवता उनकी स्तुति करने लगे। दैत्यों के नाश से उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई थी। फिर दत्तात्रेय को प्रणाम करके देवता स्वर्ग में चले गये और पहले की भाँति निश्चिन्त होकर रहने लगे। 

    यहाँ हमने देखा कि लक्ष्मी जिसके सर चढ जाती है अर्थात् धन का मद जिसके ऊपर सवार हो जाता है‚ वह धर्म के मार्ग से च्युत हो जाता है और पापाचरण पर उतर आता है। इस प्रकार अपने तेज व पुण्य को नष्ट कर पतन का भागी बन जाता है। केवल धन की कामना से भगवती लक्ष्मी की पूजा की जाय तो वह विनाश का हेतु बनती है‚ अतः सद्बुद्धि की कामना से भगवती की आराधना करनी चाहिये। 

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