नेत्रदान उचित या अनुचितॽ

 प्रश्नः— क्या मृत्यु के बाद नेत्रदान करना उचित हैॽ

उत्तरः— सर्वथा अनुचित है। जैसे सम्पत्ति देने का अधिकार बालिग हो होता है‚ नाबालिग को नही होता‚ ऐसे ही शरीर के किसी अंग का दान करने का अधिकार जीवन्मुक्त महापुरुष को ही है। जिसने अपनी मुक्ति या कल्याण कर लिया है‚ अपना मनुष्य जन्म सफल बना लिया है‚ वह बालिग है‚ शेष सब नाबालिग है। जीवन्मुक्त महापुरुष भी शरीर के रहते हुए ही नेत्रदान कर सकता है‚ शरीर छूटने के बाद नहीं। दधीचि ऋषि ने जीवितावस्था में ही इंद्र को वज्रनिर्माण के लिये अपना शरीर दिया था। राजा अलर्क ने भी जीवितावस्था में ही एक अंधे ब्राह्मण को नेत्रदान किया था।

    शव के साथ छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिये। शव का कोई अंग काटने से अगले जन्म में वह अंग नहीं मिलता। अंग मिलता भी है तो उसमें कमी अथवा चिह्न रहता है। कुछ व्यक्तियों में पूर्वजन्म का चिह्न इस जन्म में भी देखा गया है। बालक के मरने पर माताएँ उसके किसी अंग पर लहसुन लगा देती हैं तो वह चिह्न अगले जन्म में भी रहता है। 

    मरणोपरान्त नेत्रदान के औचित्य के विषय में वाराणसी की ʺश्रीगीर्वाणवाग्वर्धिनीसभाʺ से पूछा गया तो उन्होंने अपना निर्णय यह लिखकर भेजा— अग्नि में शव की आहुति दी जाती है। हवनीय द्रव्य शव में अग्नि का अधिकार होने से उसे जानबूझकर अंगहीन नहीं किया जाना चाहिये। मूल शरीर के अभाव में पुत्तल बनाते समय कौड़ियों से नेत्रों की कल्पना बतायी गयी है। इससे सिद्ध होता है कि मूल शरीर में नेत्रों का अस्तित्व आवश्यक है। अतः नेत्रदान के लिये शव का अंग-भंग अनुचित है। 

    यहाँ बाहरी  दृष्टि से तो लगता है कि कितनी अच्छी बात है‚ मर तो रहे ही है‚ अगर मेरा अंग किसी अन्य के काम आ जाये तो क्या बुरा हैॽ पुण्य ही होगा। लेकिन हो जाता है ठीक उल्टा‚ पुण्य के बजाय पाप लगता है‚ अगले जन्म में अंगहानि का दण्ड और भोगना पड़ता है। क्योंकि हमारी सोच के अनुसार धर्म या धर्मशास्त्र नहीं चलते‚ अपितु हमें धर्म के अनुसार चलना होता है। इसलिये कहा गया है कि सर्वस्य लोचनं शास्त्रं यस्य नास्त्यन्ध एव सः॥ 

जिसके पास शास्त्ररूपी आँखे नहीं है‚ वही अन्धा है।

अब यदि फिर भी किसी को लगे कि मैं तो नेत्रदान करूंगा‚ भले ही अगले जन्म में अंधा ही पैदा क्यों न हो जाउँ तो सहर्ष नेत्रदान कर सकता है। 

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