देवर्षि नारद की विष्णु भगवान् को फटकार | नारद मोह

    जब देवर्षि नारद राजकुमारी विश्वमोहिनी से विवाह की इच्छा रखते हुए विष्णु भगवान् से उन्हीं के जैसे रूप की याचना करते है तो भगवान् कौतुक करते हुए उन्हें बंदर जैसा रूप दे देते है। उसी रूप को लेकर वे विश्वमोहिनी के स्वयंवर में चले जाते है‚ किन्तु वह कन्या उन्हें देखकर उनका वरण करने के बजाय क्रुद्ध होकर आगे चली जाती है और राजकुमार का शरीर धारणकर आये हुए विष्णु भगवान् का जयमाला डालकर वरण कर लेती है। नारदजी तो बड़े फूले हुए बैठे थे कि मेरा रूप भगवान् जैसा है तो कन्या मुझे ही वर चुनेगी। परन्तु राजकुमारी के न मिलने पर वे माेहवश बड़े विकल हो गये। 

    वहीं पर स्वयंवरमें दो रुद्रगण भी आये हुए थे‚ जो यह सारा भेद जानते थे। उन्होने जब व्याकुल हुए नारदजी को देखा तो कहा कि मुनिवर कृपया अपना मुख दर्पणमें तो देख लीजिये। नारदजी ने जब अपना रूप जलमें झाँककर देखा तो बंदरका रूप देखकर उनका क्रोध बहुत बढ गया। उन्होंने उन दोनों रुद्रगणोंका राक्षस हो जानेका शाप दे डाला और खरी-खोटी सुनाने भगवान् के पास जाने लगे। इसी बीच रास्ते में भगवान् भी मिल गये‚ उनके साथ लक्ष्मी थी और वही राजकुमारी विश्वमोहिनी थी। अब विश्वमोहिनीको भगवान् के साथ देखकर नारदमुनिके क्रोधका ठिकाना न रहा‚ उन्होंने उन्हें फटकारते हुए कहा—

पर संपदा सकहु नहिं देखी। तुम्हरे इरिषा कपट विशेषी॥
मथत सिंधु रुद्रहिं बौरायहु। सुरन प्रेरि विषपान करायहु॥

मुनिने कहा- तुम दूसरोंकी सम्पदाको नहीं देख सकते, तुम्हारे भीतर ईर्ष्या-कपट बहुत है। समुद्र मथनेके समय तुमने शिवको बावला बनाया और देवोंको प्रेरित कर उन्हें विष पिलाया॥

असुर सुरा विष शंकरहि आपु रमा मणि चारु।
स्वारथ साधक कुटिल तुम सदा कपट व्यवहारु॥

असुरोंको मदिरा एवं शंकरको विष देकर तुमने स्वयं लक्ष्मी और सुंदर कौस्तुभ मणि ले ली। तुम बड़े कुटिल व मतलबी हो। सदा कपटका व्यवहार करते हो॥

परम स्वतंत्र न सिर पर कोई। भावइ मनहिं करहु तुम सोई॥
भलेहि मंद मंदेहि भल करहू। विस्मय हरष न हिय कछु धरहू॥

तुम परम स्वतंत्र हो, सिरपर तो कोई है नहीं, इससे जब जो मनको प्रिय लगता है, वही करते हो। भले व्यक्तिको बुरा और बुरेको भला कर देते हो। ऐसा करते हुए भी तुम्हारे हृदयमें हर्ष या विषाद नहीं होता॥

डहकि डहकि परिचेहु सब काहू। अति अशंक मन सदा उछाहू॥
करम शुभाशुभ तुमहिं न बाधा। अब लगि तुमहिं न काहूँ साधा॥

सबको ठग-ठगकर परक गए हो। अति निडर हो गए हो, इसीसे मनमें सदा उत्साह रहता है। शुभ-अशुभ कर्म तुम्हें बाधा नहीं देते और अबतक तुम्हें किसीने ठीक भी नहीं किया॥

भले भवन अब बायन दीन्हा। पावहुगे फल आपन कीन्हा॥
वंचेहु मोहि जवन धरि देहा। सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा॥

अबकी तुमने अच्छे घर बैना दिया है। अतः अपनी करनीका फल अवश्य पाओगे। जिस शरीरको धारण कर तुमने मुझे ठगा है, तुम भी वही शरीर धारण करो, यह मेरा शाप है॥

कपि आकृति तुम कीन्ह हमारी। करिहैं कीस सहाय तुम्हारी॥
मम अपकार कीन्ह तुम भारी। नारि विरह तुम होब दुखारी॥

तुमने हमारा रूप बंदरका बना दिया था, इसलिये बंदर ही तुम्हारी सहायता करेंगे। तुमने मेरा बड़ा काम बिगाड़ा है, अत: तुम स्त्रीके वियोगमें दुःखी होओगे॥

    यहाँ हम देखते है कि भगवान् की मायाके आगे किसीका भी वश नहीं है। भगवान् इच्छा कर ले तो चाहे कितना ही बड़ा देवता‚ तपस्वी‚ ऋषि या ज्ञानी हो‚ उसे मायामोहित करके क्षणभरमें बावला बना सकते है। वे चाहे तो मच्छर को ब्रह्मा बना दे और ब्रह्मा को मच्छर से भी नीचा बना दे।
मशकहि करहिं विरंचि प्रभु अजहु मशक ते हीन।।
 लेकिन भले ही यहाँ क्रोधवश देवर्षिने भगवान् को कटुवचन कहे हो लेकिन गंभीरतासे विचार करनेपर उनकी एक-एक बात सही प्रतीत होती है। क्रोध में व्यक्ति विवेक खोकर या तो अनर्गल बोलता है या फिर अगले व्यक्तिकी पोल खोलकर रख देता है। यहाँ नारदजी ने पोल खोलनेवाला काम किया। नारदजी का भगवान् की पोल खोलना उनके रहस्य‚ ऐश्वर्य एवं प्रभाव को उजागर करना है। देवर्षिके शाप के बहाने से भगवान् विष्णु श्रीरामके रूपमें धराधाम पर अवतीर्ण हुए। 

    यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि जब भगवान् ने देवर्षि को बंदरका रूप दिया तब अन्य लोगोंको इस रहस्य का पता न चला। सब तो उन्हें नारद ही जान रहे थे। केवल विश्वमोहिनी और दोनों रुद्रगणोंको ही वे बंदरकी आकृतिवाले दिखाई पड़ रहे थे। 

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