राजा सहस्रार्जुन चरित | राजा सहस्रबाहु

    सहस्रार्जुन हैहयराज कृतवीर्य के पुत्र थे। इनका मुख्य नाम तो अर्जुन था लेकिन हजार भुजाएँ होने के कारण इन्हें सहस्रार्जुन नाम से जाना जाता है। अपने पराक्रम से इन्होंने विश्वविजेता रावण को भी परास्त कर बंदी बना लिया था। इन्हें सुदर्शन चक्र का अवतार माना जाता है।

     जब राजा कृतवीर्य स्वर्ग सिधारे‚ तब मंत्रियों‚ पुरोहितों तथा पुरवासियों ने राजकुमार अर्जुन को राज्याभिषेक के लिये बुलाया तब उसने कहा— मंत्रियोǃ जो भविष्य में नरक को ले जानेवाला है‚ वह राज्य मैं ग्रहण नहीं करूँगा। जिसके लिये प्रजाजनों से कर लिया जाता है‚ उस उद्देश्य का पालन न किया जाय तो राज्य लेना व्यर्थ है। वैश्यलोग अपने व्यापार से होनेवाली आय का बारहवाँ भाग राजा को इसलिये देते हैं कि वे मार्ग में लुटेरों द्वारा न लूटे जायँ। ग्वाले घी और छाछ आदि का तथा किसान अनाज का छठा भाग राजा को इसी उद्देश्य से अर्पण करते है। प्रजा की आय का जो छठा भाग है‚ उसे पूर्वकाल के महर्षियों ने राजा के लिये प्रजा की रक्षा का वेतन निश्चित किया है। यदि चोरों से वह प्रजा की रक्षा न कर सका तो इसका पाप राजा को ही होता है; इसलिये यदि मै तपस्या करके इच्छानुसार योगी का पद प्राप्त कर लूँ तभी मैं पृथ्वी के पालन की शक्ति से युक्त एकमात्र राजा हो सकता हूँ। ऐसी दशा में अपने उत्तरदायित्व का पूर्ण निर्वाह करने के कारण मुझे पाप का भागी नहीं होना पड़ेगा।

    उसके इस निश्चय को जानकर मंत्रियों के मध्य में बैठे हुए परम बुद्धिमान् वयोवृद्ध मुनिश्रेष्ठ गर्ग ने कहा— राजकुमारǃ यदि तुम राज्य का यथावत् पालन करने के लिये ऐसा करना चाहते हो तो मेरी बात सुनो। महाभाग दत्तात्रेय मुनि सह्यपर्वत की गुफा में रहते है। वे योगयुक्त‚ परम सौभाग्यशाली‚ समदर्शी तथा विश्वपालक भगवान् विष्णु के अंशरूप से इस पृथ्वी पर अवतीर्ण हुए हैं। उन्हीं की आराधना करके इंद्र ने दुरात्मा दैत्यों द्वारा छीने हुए अपने पद को प्राप्त किया तथा पूर्ववत् निश्चिन्त होकर स्वर्ग में वास करने लगे। राजकुमारǃ यदि तुम भी इसी प्रकार अपनी इच्छा के अनुसार अनुपम ऐश्वर्य प्राप्त करना चाहते हो तो तुरंत ही उनकी आराधना में लग जाओ। 

    गर्ग मुनि की बात सुनकर राजकुमार अर्जुन ने दत्तात्रेय के आश्रम पर जाकर उनका भक्तिपूर्वक पूजन किया। वह उनके पैर दबाता‚ उनके लिये माला‚ चंदन‚ गंध‚ जल और फल आदि सामग्री प्रस्तुत करता; भोजन के साधन जुटाता और जूँठन साफ करता था। इससे संतुष्ट होकर मुनि ने कार्तवीर्य अर्जुन से कहा— राजकुमारǃ तुम देखते हो‚ मेरे पास यह स्त्री बैठी हुई है। मैं इसके उपभोग से निंदा का पात्र हो रहा हूँ‚ अतः मुझ असमर्थ व्यक्ति की सेवा तुम्हें नही करनी चाहिये। तुम अपने उपकार के लिये किसी सामर्थ्यशाली पुरुष की आराधना करो। उनके इस प्रकार कहने पर अर्जुन ने  प्रणाम करके कहा— देवǃ आप अपनी माया का आश्रय लेकर मुझे क्यों मोहित कर रहे हैंॽ आप सर्वथा निष्पाप है। इसी प्रकार ये देवी भी संपूर्ण जगत् की जननी हैं। 

    अर्जुन के यों कहने पर भगवान् दत्तात्रेय ने कहा— राजन्ǃ तुमने मेरे गूढ रहस्य का कथन किया है‚ इसलिये मैं तुम पर बहुत सन्तुष्ट हूँ। तुम कोई वर माँगो। कार्तवीर्य ने कहा— देवǃ यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे ऐसी उत्तम ऐश्वर्यशक्ति प्रदान कीजिये‚ जिससे मै प्रजा का पालन करूँ और अधर्म का भागी न बनूँ। मैं दूसरों के मन की बात जान लूँ और युद्ध में कोई मेरा सामना नहीं कर सके। युद्ध करते समय मुझे एक हजार भुजाएँ प्राप्त हों; किन्तु वे इतनी हल्की हों‚ जिससे मेरे शरीर पर भार न पड़े। पर्वत‚ आकाश‚ जल‚ पृथ्वी और पाताल में मेरी अबाध गति हो। मेरे वध मेरी अपेक्षा श्रेष्ठ पुरुष के हाथ से हो। यदि कभी मैं कुमार्ग में प्रवृत्त होऊँ तो मुझे सन्मार्ग दिखानेवाले उपदेशक प्राप्त हो। मुझे श्रेष्ठ अतिथि प्राप्त हों और निरन्तर दान करते रहनेपर भी मेरा धन कभी क्षीण न हो। मेरे स्मरण करने मात्र से सम्पूर्ण राष्ट्र में धन का अभाव दूर हो जाय तथा आपमें मेरी अनन्य भक्ति बनी रहे। 

    भगवान् दत्तात्रेय ने अर्जुन को सभी वरदान दे दिये। तदनन्तर उन्हें प्रणाम कर अर्जुन अपने स्थान पर लौटा और समस्त अमात्यवर्ग के लोगों को एकत्रित करके उसने राज्याभिषेक ग्रहण किया। उसके अभिषेक के लिये गंधर्व‚ श्रेष्ठ अप्सराएँ‚ वसिष्ठ आदि महर्षि मेरु आदि पर्वत‚ गंगा आदि नदियाँ और समुद्र‚ पाकर आदि वृक्ष‚ इंद्रादि देवता‚ वासुकि नाग‚ गरुड आदि पक्षी तथा नगर एवं जनपद के निवासी भी आये थे। दत्तात्रेय प्रभु की कृपा से अभिषेक की सब सामग्री स्वतः जुट गयी थी। फिर तो ब्रह्मादि देवताओं ने होम के लिये अग्नि को प्रज्वलित किया तथा साक्षात् नारायणस्वरूप दत्तात्रेय एवं अन्यान्य महर्षियों ने समुद्र और नदियों के जल से अर्जुन का राज्याभिषेक किया। राजसिंहासन पर आसीन होते ही हैहयनरेश ने अधर्म के नाश और धर्म की रक्षा के लिये घोषणा करायी कि आज से मुझे छोड़कर जो कोई भी शस्त्र ग्रहण करेगा अथवा दूसरों की हिंसा में प्रवृत्त होगा‚ वह लुटेरा समझा जावेगा और मेरे हाथ से उसका वध होगा। 

    ऐसी आज्ञा के जारी होने पर उस राज्य में नरश्रेष्ठ राजा अर्जुन को छोड़कर दूसरा कोई मनुष्य शस्त्र धारण नहीं करता था। स्वयं राजा ही गाँवों‚ पशुओं‚ खेतों एवं द्विजातियों की रक्षा करते थे। लुटेरे‚ सर्प‚ अग्नि तथा शस्त्र आदि से भयभीत मनुष्यों को तथा अन्य प्रकार की आपत्तियों में मग्न हुए मानवों का स्मरण करने मात्र से तत्काल उद्धार कर देते थे। उनके राज्य में धन का कभी अभाव नहीं होता था। उन्होंने अनेक ऐसे यज्ञ किये‚ जिनके पूर्ण होने पर ब्राह्मणों को प्रचुर दक्षिणाएँ दी जाती थीं। उन्होंने कठोर तपस्या की और संग्राम में महान् पराक्रम दिखाया। उनकी समृद्धि और बढा हुआ सम्मान देखकर अंगिरा मुनि ने कहा— अन्य राजाजन यज्ञ‚ दान‚ तपस्या अथवा संग्राम में राजा कार्तवीर्य की तुलना नहीं कर सकते। राजा अर्जुन ने जिस दिन दत्तात्रेय से समृद्धि प्राप्त की थी‚ उस दिन के आने पर वह उनके लिये यज्ञ करता था और सारी प्रजा भी राजा को परम ऐश्वर्यवान् देखकर एकाग्रचित्त से दत्तात्रेय भगवान् का यजन करती थी। 

    राजा सहस्रार्जुन योगेश्वर हो गये थे। वे सूक्ष्म से सूक्ष्म और स्थूल से स्थूल रूप धारण कर लेते। सभी सिद्धियाँ उन्हें प्राप्त थीं। एक बार गले में वैजयन्ती माला पहने सहस्रार्जुन सुंदरी स्त्रियों के साथ नर्मदा नदी में जलविहार कर रहे थे। उस समय मदोन्मत्त हाेकर उन्होंने अपनी हजार भुजाओं से नदी का प्रवाह रोक दिया। दशानन रावण का शिविर भी समीप ही था। नदी की धारा विपरीत बहने से उसका शिविर डूबने लगा। रावण अपने को बड़ा वीर तो मानता ही था‚ इसलिये सहस्रार्जुन का पराक्रम उससे सहन न हुआ। जब रावण सहस्रबाहु के पास जाकर बुरा-भला कहने लगा‚ तब उसने स्त्रियों के सामने ही खेल-खेल में रावण को पकड़ लिया और अपनी राजधानी माहिष्मती में ले जाकर बंदर के समान कैद कर लिया। पीछे पुलस्त्य ऋषि के कहने से सहस्रबाहु ने रावण को छोड़ दिया। 

    एक दिन अर्जुन शिकार खेलने घोर जंगल में निकल गये। दैववश वे मुनि जमदग्नि के आश्रम पर पहुँच गये। मुनि ने अपने आश्रम में रहने वाली कामधेनु के प्रताप से हैहयाधिपति का सेना‚ मंत्री और वाहनों के साथ बड़ा सत्कार किया। अर्जुन ने मुनि का ऐश्वर्य स्वयं से भी बढा हुआ देखा तो अभिमानवश बिना माँगे ही कामधेनु को छीनकर माहिष्मती पुरी आ गये। इस दुष्कृत्य से कुपित होकर जमदग्नि मुनि के पुत्र भगवान् परशुराम ने अकेले ही अर्जुन के नगर में प्रवेश कर उसकी सारी सेना को नष्ट कर डाला। तब अर्जुन ने स्वयं युद्ध करते हुए अपनी हजार भुजाओं से पाँच सौ धनुषों पर बाण चढाये व परशुरामजी पर छोड़े‚ परन्तु परशुरामजी ने एक धनुष पर छोड़े हुए बाणों से ही एक साथ सबको काट डाला। फिर उन्होंने अपने तीखे फरसे से अर्जुन की हजार भुजाओं को काट डाला और उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। 

    इस प्रकार राजा सहस्रार्जुन पराक्रमी व धर्मात्मा होते हुए भी अंत में राजमद से क्षुभित होकर मुनि का अपराध कर बैठे और उन्हें अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा। अब किसी न किसी बहाने से अर्जुन का अंत तो होना ही था तो विधाता ने कामधेनु हरण को निमित्त बनाकर उसका अंत करा दिया; क्योंकि साधारण पुरुष से तो सहस्रार्जुन मारे नही जा सकते थे। इसीलिये भगवान् विष्णु के अंशावतार परशुराम द्वारा उनका वध हुआ। राजा सहस्रार्जुन का प्रताप यह भी है कि उनके स्मरण मात्र से खोयी या नष्ट हुई वस्तु पुनः उपलब्ध हो जाती है। यह श्लोक प्रसिद्ध है—

कार्तवीर्यार्जुनो नाम राजा बाहुसहस्रवान्।
यस्य स्मरणमात्रेण हृतं नष्टं च लभ्यते।।

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