शाण्डिली चरित | अनसूया एवं शांडिली

     प्रतिष्ठानपुर में एक कौशिक नामक ब्राह्मण था‚ जो पूर्वजन्म में किये पापों से कोढ से व्याकुल रहने लगा। ऐसे रोग से युक्त होने पर भी उसे उसकी पत्नी शाण्डिली देवता की भाँति पूजती थी। वह अपने पति के पैरों में तेल मलती‚ उसका शरीर दबाती‚ अपने हाथ से उसे नहलाती‚ कपड़े पहनाती और भोजन कराती थी; इतना ही नहीं‚ उसके थूक‚ खँखार‚ मल-मूत्र और रक्त भी वह स्वयं ही धोकर साफ करती थी। वह उसकी सर्वभाव से सेवा कर उसे मीठी वाणी से प्रसन्न रखती थी तो भी अधिक क्रोधी स्वभाव होने के कारण वह निष्ठुर प्रायः अपनी पत्नी को फटकारता ही रहता था। तब भी वह उसके पैरों पड़ती और उसे देवता के समान समझती। यद्यपि उसका शरीर अत्यन्त घृणा के योग्य था तो भी वह साध्वी उसे सबसे श्रेष्ठ मानती थी।

    कौशिक से चला-फिरा नहीं जाता था तो भी एक दिन उसने अपनी पत्नी से कहा— धर्मज्ञेǃ उस दिन मैंने घर पर बैठे-बैठे जिस वेश्या को जाते देखा था‚ उसके घर में आज मुझे ले चलो‚ वही मेरे हृदय में बसी हुई है। यदि आज वह मेरा आलिंगन नहीं करेगी तो कल तुम मुझे मरा हुआ देखोगी। मुझमें उसके पास जाने की शक्ति नहीं है; इसलिये आज मुझे बड़ा संकट प्रतीत होता है। अपने कामातुर स्वामी का यह वचन सुनकर इस पतिव्रता ने धन लेकर अपने पति को कंधे पर चढा लिया और फिर धीरे-धीरे वेश्या के घर की ओर प्रस्थान किया। रात्रि का समय था‚ आकाश मेघों से आच्छन्न हो रहा था। केवल बिजली के चमकने से मार्ग दिखायी पड़ता था। ऐसी बेला में वह ब्राह्मणी अपने पति का अभीष्ट साधन करने के लिये राजमार्ग से जा रही थी। मार्ग में सूली थी‚ जिसे ऊपर चोर न होते हुए भी चोर के संदेह से माण्डव्य नामक ब्राह्मण को चढा दिया गया था। वे दुःख से आतुर हो रहे थे।

     कौशिक पत्नी के कंधे पर बैठा हुआ था‚ उस अंधकार में न देख सकने के कारण उसने अपने पैरों से छूकर सूली को हिला दिया। इससे कुपित होकर माण्डव्य ने कहा— जिसने पैर से हिलाकर मुझे कष्ट की दशा में पहुँचा दिया वह नराधम सूर्योदय होने पर निस्संदेह अपने प्राणों से हाथ धो बैठेगा। इस अत्यन्त दारुण शाप को सुनकर उसकी पत्नी व्यथित होकर बोली— अब सूर्य का उदय ही नहीं होगा। तदनन्तर सूर्योदय न होने के कारण बराबर रात ही रहने लगी। इससे देवताओं का बड़ा भय हुआ। वे सोचने लगे— स्वाध्याय‚ वषट्कार‚ श्राद्ध‚ यज्ञ से रहित होकर यह सारा जगत् नष्ट हो जाएगा। दिन-रात की व्यवस्था के बिना मास‚ ऋतु‚ अयन एवं वर्ष का भी लोप हो जायेगा। सूर्योदय के बिना स्नान‚ दानादि क्रियाएँ बंद हो गयीं। यज्ञ एवं होम के बिना हम लोगों की तृप्ति नहीं हाेती। जब मनुष्य यज्ञ के भाग द्वारा हमे तृप्त करते हैं तब हम खेती की उपज के लिये वर्षा करके उन पर अनुग्रह करते हैं। हम नीचे की ओर वर्षा करते है और मनुष्य ऊपर की ओर। इस समय प्रभातकाल हुए बिना इन मनुष्यों के लिये सब पुण्यकर्म असंभव हो रहा है। अब दिन की सृष्टि कैसे होॽ

    इस प्रकार सब देवता परस्पर वार्तालाप करने लगे। यज्ञों के विनाश की आशंका से वहाँ एकत्रित हुए देवताओं के वचन सुनकर प्रजापति ब्रह्मा ने कहा— पतिव्रता के माहात्म्य से इस समय सूर्य का उदय नहीं हो रहा है और उसके उदय न होने से मनुष्यों तथा तुम देवताओं की भी हानि है। अतः तुम लोग महर्षि अत्रि की पत्नी तपस्विनी अनसूया के पास जाओ और सूर्याेदय की कामना से उन्हे प्रसन्न करो। तब देवताओं ने अनसूया को प्रसन्न कर उनसे याचना की कि पूर्ववत् दिन होने लगे। अनसूया ने कहा— देवताओंǃ पतिव्रता का महत्त्व किसी प्रकार कम नहीं हो सकता; इसलिये मैं उस साध्वी को मनाकर दिन की सृष्टि करूँगी। 

    देवताओं से यों कहकर अनसूया देवी उस ब्राह्मणी के घर गयीं और उसके कुशल पूछने पर उन्होंने अपनी‚ अपने स्वामी की तथा अपने धर्म की कुशल बतायी। अनसूया ने कहा— पतिव्रतेǃ महान् क्लेश उठाने पर पुरुषों को प्राजापत्य आदि लोकों की प्राप्ति होती है; परन्तु स्त्रियाँ केवल पति की सेवा करने मात्र से पुरुषों के दुःख सहकर उपार्जित किये हुए पुण्य का आधा भाग प्राप्त कर लेती है। स्त्रियों के लिये अलग यज्ञ‚ श्राद्ध या उपवास का विधान नहीं है। वे पति की सेवामात्र से ही उन अभीष्ट लोकों को प्राप्त कर लेती है। 

    अनसूया का वचन सुनकर पतिव्रता ब्राह्मणी ने बड़े आदर से उनका पूजन किया और कहा— देविǃ स्वयं आप यहाँ पधारकर पति की सेवा में मेरी श्रद्धा बढा रही है। यह आपका मुझ पर बड़ा अनुग्रह है। इसी से देवताओं ने भी आज मुझ पर कृपादृष्टि की है। महाभागेǃ मुझसे अथवा मेरे इन पतिदेव से आपको जो भी कार्य हो‚ उसे बताने की कृपा करें। अनसूया बोली— देविǃ तुम्हारे वचन से दिन-रात की व्यवस्था का लोप हो जाने के कारण शुभकर्मों का अनुष्ठान बंद हो गया है; इसलिये इंद्रादि देवताओं ने मुझसे प्रार्थना की है कि दिन-रात की व्यवस्था पहले की तरह अखण्डरूप से चलती रहे। मैं इसलिये तुम्हारें पास आयी हूँ। 

    ब्राह्मणी ने कहा— महाभागेǃ माण्डव्य ऋषि के शाप से सूर्योदय होते ही मेरे पति की मृत्यु हो जाएगी। अनसूया बोली— कल्याणिǃ यदि तुम्हारी इच्छा हो‚ तुम कहो तो मैं तुम्हारे पति को पूर्ववत् शरीर एवं नयी अवस्था का कर दूँगी। सुन्दरिǃ मुझे पतिव्रता स्त्रियों के माहात्म्य को सर्वथा आदर करना है‚ इसीलिये तुम्हें मनाती हूँ। तब ब्राह्मणी के तथास्तु कहकर स्वीकार करने पर अनसूया ने अर्घ्य हाथ में लेकर सूर्यदेव का आह्वान किया। उस समय तक दस दिनों के बराबर रात बीत चुकी थी। तदनन्तर भगवान् सूर्य खिले हुए कमल के समान अरुण आकृति धारण किये अपने महान् मण्डल के साथ गिरिराज उदयाचल पर आरूढ हुए। सूर्यदेव के प्रकट होते ही ब्राह्मणी का पति प्राणहीन होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा; किन्तु उसकी पत्नी ने गिरते समय उसे पकड़ लिया।

    अनसूया बोली— भद्रेǃ तुम विषाद न करना। पति की सेवा से जो तपोबल मुझे प्राप्त हुआ है‚ उसे तुम अभी देखो। मैंने जो रूप‚ शील‚ बुद्धि एवं मधुर भाषण आदि सद्गुणों से अपने पति के समान दूसरे किसी पुरुष को कभी नहीं देखा है‚ उस सत्य के प्रभाव से यह ब्राह्मण रोग से मुक्त हो फिर से तरुण हो जाय और अपनी स्त्री के साथ सौ वर्षों तक जीवित रहे। यदि मैं स्वामी के समान और किसी देवता काे नहीं समझती; यदि मन‚ वाणी एवं क्रिया द्वारा मेरा सारा उद्योग प्रतिदिन स्वामी की सेवा के लिये ही होता हो तो यह ब्राह्मण रोगमुक्त होकर पुनः जीवित हो जाय। 

    देवी अनसूया के इतना कहते ही वह ब्राह्मण अपनी प्रभा से उस भवन को प्रकाशमान करता हुआ रोगमुक्त तरुण शरीर से जीवित हो उठा‚ मानो जरावस्था से रहित देवता हो। तदनन्तर दुन्दुभि आदि देवताओं के बाजों की आवाज के साथ वहां पुष्पों की वर्षा होने लगी। देवता अनसूया से कहने लगे— कल्याणिǃ आपने हमारा बहुत महान् कार्य किया है। हम आपको वर देना चाहते हैं। आप कोई वर माँगे। 

    अनसूया ने कहा— यदि आप मुझे वर देने योग्य समझते है तो मेरी यही इच्छा है कि ब्रह्मा‚ विष्णु और शिव मेरे पुत्र के रूप में प्रकट हों तथा अपने स्वामी के साथ मैं उस योग को प्राप्त करूँ‚ जो समस्त क्लेशों से मुक्ति देनेवाला है। यह सुनकर ब्रह्मा‚ विष्णु और शिव आदि देवताओं ने एवमस्तु कहा और तपस्विनी अनसूया एवं ब्राह्मणी शाण्डिली का सम्मान करके वे सब अपने-अपने धाम काे चले गये। 

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